In my mid-late teens, I wanted to be an author (as many of us do), and used to write stories. Many of those scribbling are still with me in the old notebooks. Looking at the notebook, I think this was written around '70-'72.
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उसने तूलिका रखी और दोबारा कैनवास को देखा|
अधूरी! अभी भी अधूरी| कुछ कमी है, पर क्या? वो समझ नहीं पा रहा था|
एक बार फिर उसने अपनी कृति को तराशा| थोड़ी झुकी हुयी पलकें, खोये से नयन, छोटे अधर, उड़ते से रेशमी बाल... थोड़े में कहें तो वो कैनवास पर रंगों से लिखी हुई एक कविता थी| लेकिन अपने कवि के लिए अभी भी अधूरी! उसे अपनी रचना से संतुष्टि नहीं हो रही थी – स्वाभाविक भी है| ईश्वर भी तो मानव से असंतुष्ट ही रहता है; इसीलिए तो उसे बनाता है, मिटाता है और फिर से नए रूप देता है|
स्टूडियो की खिड़की से बाहर दूर क्षितिज पर घुलते सूरज का अंतिम लय चित्रकार की कल्पना के गीतों में समाता जा रहा था| अपनी आराम कुर्सी पर लेटे हुए वो उसी गीत में डूबता जा रहा था – और उसके सामने कैनवास में बंद उसका अपना गीत अपने रचनाकार में घुल जाने के लिये अपनी बेड़ियाँ काटने के प्रयत्न कर रहा था|
ख़ामोशी के शब्द नहीं होते लेकिन वो अपने आप में एक कविता होती है| उसमे ध्वनि नहीं होती लेकिन वो स्वयं एक स्वर-स्तोत्र होती है| ऐसी ही ख़ामोशी स्टूडियो में एक खेल रचा रही थी| अँधियारा बढ़ता जा रहा था... ये भी ख़ामोशी की तरह ही होता है| यदि देख सकें तो इसमें भी एक रंगीन संसार होता है; अगर नहीं, तो एक मात्र काली चादर जिसमें हम स्वयं को खो देते हैं|
कितनी स्थिरता!!
चित्रकार को भी आज इसका अहसास हुआ था – पहली बार| उसके संसार में आज एक नया रंग था – एक ऐसा रंग जिसे उसकी तूलिका ने पहले कभी नहीं छुआ था|
उसके लिए यथार्थ और कल्पना जगत एक ही थे| जीवन उसके लिए एक स्वप्न मात्र था, उसके स्वप्न ही उसका जीवन थे| और आज जब इस नई अनुभूति में उसने अपने को ढूंढना चाहा तो वो ये भी नहीं समझ पा रहा था कि ये स्वप्न है या यथार्थ|
अनोखा जगत था| न अंधकार था, न ही कोई रौशनी; न स्वर थे और न ही स्तब्धता – सब कुछ होते हुए भी नहीं था| यदि थी तो स्थिरता! कर्कश, पैनी स्थिरता – लेकिन मृदु और मधुर भी| एक शांत स्थिरता...
“सुनो!”, उसने मुड़ कर देखा|
उसकी कल्पना उसके सामने थी| कैनवास के बंधन टूट गए थे, और उसमें छिपी हुई सजीविता स्पष्ट हो आई थी|
“क्या मैं अपूर्ण हूँ?” उसका स्वर करुण था|
चित्रकार ने उसे तराशा, “हाँ, शायद|”
फिर से ख़ामोशी – वही स्थिरता!
चित्रकार समझ नहीं पा रहा था| उसके सामने उसकी कृति पूर्ण खड़ी थी, लेकिन उसके मन की आखें उसे अपूर्ण बता रही थीं| उसके अधर फिर हिले, “नहीं! तुम अभी भी अपूर्ण हो|”
“क्यों?” कविता सिहर उठी|
“क्यों कि...” चित्रकार रुक गया, “... क्यों कि तुम केवल एक कल्पना हो|”
सरगम के स्वर गूँज उठे, “और तुम?”
वो स्तब्ध था| इतना बड़ा प्रश्न, “मैं क्या हूँ?”
एक ही उत्तर था – केवल एक कल्पना, एक कोरी अधूरी कल्पना!
कितना बड़ा व्यंग, कितनी बड़ी विडंबना! कर्ता स्वयं एक कृति था, अधूरी|
कल्पना विहंस उठी, “जब हम दोनों ही अपूर्ण कल्पना हैं, तो तुम्हारा मुझ पर क्या अधिकार? तुमने मुझ पर बंधन डाल रखे हैं, और शायद केवल मेरे अधूरेपन के कारण मुझे मिटा भी दोगे| लेकिन क्या तुम स्वयं एक अपूर्ण कल्पना नहीं हो?”
“हाँ... मैं भी अपूर्ण हूँ,” चित्रकार को अपनी लघुता का अहसास हो रहा था, “लेकिन – लेकिन, मैं कर ही क्या सकता हूँ?”
कल्पना की आँखों में प्रेम की सुरुभि थी| वो चित्रकार को देख रही थी जैसे माँ अपने शिशु को देख रही हो, जैसे प्रेयसी अपने प्रेमी को देखती हो, “हमारा बंधन ही हमारी अपूर्णता है, हमारा अधूरापन है| आओ हम दोनों मुक्त हो जाएँ, पूर्ण हो जाएँ...”
चित्रकार एक मासूम बच्चे की तरह उसके नयनों में अपने आप को निहार रहा था| कविता ने
अपना हाथ बढ़ाया, और अनजाने ही उसने अपना हाथ उसके हाथों में दे दिया|
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सुबह के सूरज की पहली किरण स्टूडियो में तैरने लगी थी| बंधन टूट गए थे| चित्रकार का हाथ अपने हाथ में लिए, उसकी कल्पना आराम कुर्सी पर पड़े उसके निढाल, मृत शरीर को निहार रही थी| दोनों की छायाएं स्टैंड पर लगे सादे कैनवस मिल कर एक हो गयीं थीं|