Wednesday, August 19, 2009
क्या जीवन का ध्येय यही है!.. ?
... there were 3 of us (now 2)... who grew-up together, and would meet every other evening, discuss and debate the "world issues"... - we were the "romantics", dangling between GB Shaw, Oscar Wilde and Jean-Paul Sarte/ Albert Camus... essentially, trying to find ourselves... and sometimes we will also throw a gauntlet to each other...
One of these, I recall (and it still stays with me) was when we decided to make poems ending with "क्या जीवन का ध्येय यही है"
one of us (not me - Binnoo) who made these verses
"मुझमें है मष्तिष्क ह्रदय है
मुझमें काम क्रोध और भय है
जो अपना है, उसे भुला के
रूप देवता का कर लूँ मैं!
... क्या जीवन का ध्येय यही है?...
... these verses still remains with me...
Saturday, August 15, 2009
वोह लखनऊ कहाँ है?
लहजे में वो नफासत, वो रंग-ओ-बू कहाँ है?
वो दिल फरेब बातें, वोह गुफ्तगू कहाँ है?
था जिसपे नाज़ हमको, वो लखनऊ कहाँ है?
वो खुश्बुओं के रेले, दिल्कश हसीन मेले
दिल की जवाँ तरंगें,वो ख्वाहिशें उमंगें
जैसे बरस रही हो, रस रंग की फुवारें
अब तक बसी हैं दिल में,लव लेन की बहारें
अब भी है काफ़ी हाउस, लेकिन था एक ज़माना
जब शायरों अदीबों का, यही था ठिकाना
सिगरेट का धुआं जैसे हर फ़िक्र का बादल था
यह गंज यूँ तो अब भी चाहत है लखनऊ की
बदली हुई सी लेकिन रंगत है लखनऊ की
अंदाज़ वो नहीं हैं आदाब वो नहीं हैं,
आँखें वही हैं लेकिन अब ख्वाब वो नहीं हैं
इखलास की वो बस्ती वीरान हो गई है
इस भीड़ में शेहेर की पहचान खो गई है
तहजीब मुख्तलिफ है माहौल भी जुदा है
अब कैसे कह दें हम लखनऊ पर फ़िदा हैं
- verse of remembrances about the Lakhnau by Khushwant Singh on the eve of Hazratganj turning 200 next year in Oct 2010