It is funny, how things fall in place in life!
My last post - about a fortnight back Shifting Base... random, useless musings was about moving on......
...and though I have just about shifted my office after 15 years or so - that too on the same floor of the building - ... it was also a shifting of a "base" in life - discarding many artifacts in life which one had kept "just in case", even as my interests and priorities have changed since then.
It was also re-discovering some lost artifacts in life, which one had forgotten about - which fell into place like pieces of a jigsaw puzzle one calls life...
One of them was this poem which a friend of mine (some of my old friends of that time will recall him as Santee Joe) had sent to me a few years back - we had met first time in 1972 in Lucknow University, had studied together, had participated in each other's life, loves/longings, falterings, hopes, failures... we went our ways too - me where I am, and he in Army etc... we still keep contact, talk to each other once in a while, and some years back I had visited him and stayed with him with my daughter in Ooty where his wife teaches now....
Since he had sent me this hand-written poem - and knowing him I know that this would be the only copy of the poem - सफरनामा - I had kept it somewhere safe... to be discovered today!...
..reading it today again was that moment when things/memories/images.. (so many of those stories which we live) fell in place, where lives intertwine in ephemeral moments - and somthing starts making sense in a very intuitive, tacit sense....
In any case, this is what I re-discovered... (as if he wrote 10-years back for me for today):
उम्र के हर पड़ाव पर कुछ तो
रुक कर लिखना है सफरनामें में
I
राह में कौन सी सराय पड़ी,
कौन चश्मा था मीठे पानी का?
किस परीज़ाद की सुराही से
छलक कर जाम हाथ में आया?
कौन अपना नहीं था यूं तो पर
वख्त बे-वख्त मेरे काम आया!
मैं भला कौन था, कहाँ का था?
किसके आशीष से परवान चढ़ा?
और डगमग कदम-कदम कर के
मील-दर-मील में गया चलता..
कभी सहराओं में भटकता था
कभी तूफ़ान से उलझता था -
मेरी यायावरी का था मकसद
मेरी मर्ज़ी बने मेरा रस्ता....
मैं बियाबान का, खलाओं का
निविड़ एकांत का पुजारी था...
II
फिर सुबह बादलों के पीछे से
मुझ्को सूरज ने झाँक कर देखा |
मैंने अंजूरी में रौशनी भर ली
और मन में उसे उतार लिया
जब चली सर्द हवा तब मैंने
धूप को सूद पर उधर लिया
धूप का क़र्ज़ यूं रहा मुझ पर
शाम मैंने उसे उतार दिया ||
III
घने जंगल के उस किनारे पर
एक दहके अलाव की बात!
और मैं एक मेज़बान बना -
मेरी हमराज़ बन गई वह रात ||
इक खजाने की तरह थी वह शब -
थी किसी चांदनी का नगमा या...
किसी के सोये हुए दर्द का राज़ |
वो कोह-ए-नूर का फ़साना था -
पर मुझे और कहीं जाना था...
IV
राह पर रंज-ओ-ग़म अकेले थे
भीड़ थी, दिल जलों के मेले थे |
मयस्सर थीं तमाम वो खुशियाँ
जिनको पाने से पैर बांध जाएँ |
और ऐसी बनीं मानस्थितियाँ
कि ख़ुशी से जहान रंग जाए |
झीनी चादर पे कोई रंग चढ़े
पर ना था रंग इबादत सा कोई |
प्यार का रंग रौशनी सा था
खुशबुओं का इन्द्र-धनुष सा था |
इसी महक से सरोबार था मन
अब भी इस फ़िक्र का ग़ुलाम हूँ मैं |
आने वाले पलों कि झोली में,
यही अबीर डाल दूंगा मैं |....
V
सजी थी बज़्म चाँद-तारों की
अंजुमन एक कदरदानों की |
धुल जब नाच उठी सहरा की
झड़ी सी लग गयी सवालों की..
"कौन है जो हवा में शामिल है?
कौन वो जिसकी आँख का मंज़र
इक इशारे से बांधता पुल है?
किसका हर हुक्म एक लम्हे में
ब-सर-ओ-चश्म बजाती है हयात?
सूबह से शाम खुशबुओं में पेज
बीज बोता हुआ हवाओं में -
क्या वो मौसम का कोई माली है?
या गुलिस्तां का वो भिखारी है?
या है ईसा का कोई रहबर
बांटता जो ज़कात राहों में -
दर्द-मंदों को बक्श दे जो शफा
इश्क ने नाम दिया जिसको वफ़ा?"
इसी के आस-पास मेरा वजूद
वही ग़रीब-नवाज़ मेरा रसूल |
मैं फ़कत खाक-ए-इश्क का कतरा
मैं उसी आब-ओ-हवा का दाना..
तलब चमन-तराश की मुझ्को
पारा-पारा मेरा सनम खाना!
रूह में बाँध ज़फर की अजान
यूं लिखा जीस्त का सफरनामा ||
[written on 06th May 2001, Mysore. Sent to MS on 06 Oct 2003 from Thanjauur - Santee]
Wednesday, July 14, 2010
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