Monday, June 06, 2011

सूखे अधरों, भीगी पलकों, में ही जीवन का सत्य छिपा...

a slice of life back then... as it was happening/ unfolding...

सूखे अधरों, भीगी पलकों
में ही जीवन का सत्य छिपा...

कितनी आशाएं हैं मन की,
फिर भी परिभाषा जीवन की,
मिटती प्रतिछवियों में सोयी,
बन गयी रिक्तता जीवन की...
...जो बोझ बना खालीपन से,
ऐसा हमको अमरत्व मिला ||

राहों के काँटों से बिंध कर
जो अपने थे, उनको खो कर
पग विवश हुए, बढ़ते जाते,
मन में झूठी आशाएं ले कर..
...अनजान डगर में भटक रहे,
ना राह मिली, ना लक्ष्य मिला ||

- Sept 23, '73

Friday, June 03, 2011

कि मंजिल मिल सके शायद, मेरी भटकी हुई तालाश को...

Looking back 40-yrs at that self-in-making, I guess such random verses were a way of finding that precarious balance and meaning in life, specially when one was still grappling with so many imbalances in an unpredictably unfolding life... and one was so very unprepared for it!

नहीं बढ़ कर कभी मैंने, किसी के हाथ को थामा,
नहीं मुड़ कर कभी मैंने, चली उस राह को देखा,
है फिर भी क्यों खिंचा आया, मेरे संग ये कोई साया,
ये कैसी आस है, जिस पर कि मेरा ह्रदय भरमाया,
ये कैसा गीत है जिसको कि मेरी सांस सुनती है,
ये कैसा स्वप्न है जिसको कि मेरी आस बुनती है,
किसी के होठ में पाने, किसी अरमान के साए,
छुपाये प्यास को दिल में, कदम बढ़ते चले आये,
कि खोया था कहाँ क्या, आज तक हम जान ना पाए,

बसाए जिस्म का खंडहर, उखड्ती सांस की लय पर,
ये राही बढ़ रहा है - अब कहाँ जाये, किधर जाए...

जिधर भ्रम हो गया, मिल जाएगा अपना अधूरापन
...उधर ही बढ़ चले पग,
बाँध कर, दिल में सुहानी आस को,
कितने जनम की प्यास को,
कि मंजिल मिल सके शायद,
मेरी भटकी हुई तालाश को...

- Dec 14, 1972 (Lucknow)