Friday, December 31, 2010

३१ दिसंबर की शाम...

ना दुआ ना सलाम
राजाना सी आयी
और दीवार से कलेंडर
उतार कर ले गयी
३१ दिसंबर की शाम...

- anonymous

Wednesday, December 29, 2010

शायद ज़िंदगी बदल रही है!!

A poem by Chandan Pratap Singh, which has landed in my mailbox multiple-times during last week or so:

शायद ज़िंदगी बदल रही है!!

जब मैं छोटा था, शायद दुनिया
बहुत बड़ी हुआ करती थी..
मुझे याद है मेरे घर से "स्कूल" तक का वो रास्ता
क्या क्या नहीं था वहां,
चाट के ठेले, जलेबी की दुकान,
बर्फ के गोले, सब कुछ,

अब वहां "मोबाइल शॉप",
"विडियो पार्लर" हैं,
फिर भी सब सूना है..
शायद अब दुनिया सिमट रही है...

जब मैं छोटा था,
शायद शामें बहुत लम्बी हुआ करती थीं...
मैं हाथ में पतंग की डोर पकड़े,
घंटों उड़ा करता था,
वो लम्बी "साइकिल रेस",
वो बचपन के खेल,
वो हर शाम थक के चूर हो जाना,

अब शाम नहीं होती, दिन ढलता है
और सीधे रात हो जाती है.
शायद वक्त सिमट रहा है..

जब मैं छोटा था,
शायद दोस्ती
बहुत गहरी हुआ करती थी,
दिन भर वो हुजूम बनाकर खेलना,
वो दोस्तों के घर का खाना,
वो लड़कियों की बातें,
वो साथ रोना...

अब भी मेरे कई दोस्त हैं,
पर दोस्ती जाने कहाँ है?
जब भी "traffic signal" पे मिलते हैं
"Hi" हो जाती है,
और अपने-अपने रास्ते चल देते हैं,
होली, दीवाली, जन्मदिन और नए साल पर
बस SMS आ जाते हैं,
शायद अब रिश्ते बदल रहें हैं..

जब मैं छोटा था,
तब खेल भी अजीब हुआ करते थे,
छुपन छुपाई, लंगडी टांग,
पोषम पा, कट केक,
टिप्पी टीपी टाप.

अब internet, office,
से फुर्सत ही नहीं मिलती..

शायद ज़िन्दगी बदल रही है.
जिंदगी का सबसे बड़ा सच यही है..
जो अक्सर क़ब्रिस्तान के बाहर
बोर्ड पर लिखा होता है...
"मंजिल तो यही थी,
बस जिंदगी गुज़र गई मेरी
यहाँ आते आते"...

source: http://hinditvmedia.blogspot.com/2010_11_01_archive.html

Tuesday, December 28, 2010

प्राण, यदि तुम साथ दो तो, आज जीवन के बिखरते रूप को साकार कर दूं...

I had scribbled these verses, during a long 24-hrs train journey - Bhopal-Bina-Katni-Bilaspur-Champa - to reach the coal-mines of Korba. I was 27yrs then, and just 2yrs into my first job. And was dealing with multiple changes happening with my Life - both outside and inside... as it was unfolding then (thankfully, life has kept unfolding such surprises even now :)...


प्राण, यदि तुम साथ दो तो,
आज जीवन के बिखरते रूप को साकार कर दूं...

ह्रदय की गति में निहित यति, पूछती है अर्थ अपना,
सांस के बोझिल, थके पग, ढूंढते गंतव्य अपना,
एक विस्मृत स्वप्न जग कर, मांगता सन्दर्भ अपना,
...प्रश्नचिन्हों को मिटा कर, स्वयं को आकर दे दूं....

आज युग की साध को आराध्य जीवन का बना लूं,
जो कभी सोयी हुई थी चेतना, उसको जगा लूं,
बाँध लूं नभ को, धरा को आज बाहों में छिपा लूं,
...प्रेरणा को आज जीवन का नया आधार कर दूं...

अनगिनित पथ हैं पथिक के, भ्रम दिशाओं में छिपा है,
लख्श्य से अनजान हूँ पर, ह्रदय में सपना लिखा हैं,
खोजने-मिलने-बिछुड़ने की अजब जीवन-प्रथा है,
इस प्रथा से, इस व्यथा से, आज फिर अभिसार कर लूं....

प्राण, यदि तुम साथ दो तो,
आज जीवन के बिखरते रूप को साकार कर दूं...

...such scribblings/verses were a great way to remain 'centred to self' (a term I discovered much later) at that time - and learn to deal with the dilemmas of an unfolding life

Thursday, December 23, 2010

गीत गाता हूँ, किसी दिन बाँध चंचल काल का पल...

Keshav Pathak was one of my 'resident poets' - among many others... as I was growing up...
He wrote what made sense at that time when you are in your mid-teens - to look life from a perspective from when you would be leaving...

As I grew, I forgot him - and then - later - tried to find him too... I couldn't so I guess, he remains an unknown poet on the internet

...what I do retain are some of his verses from my diary of '70-71 - dont know/recall when/why I jotted them down - but they did make the context of growing up then...

गीत गाता हूँ, किसी दिन बाँध चंचल काल का पल,
चेतना अपनी बना दूंगा स्वरों की एक हलचल,
मौन का जब बाँध टूटेगा, घड़ी हो गी प्रलय की,
क्या नहीं इस मौन में हलचल छिपी मेरे ह्रदय की?....

and another one...

हे चिरंतन, ठहर कुछ क्षण, शिथिल कर ये नर्म बंधन,
देख लूं भर-भर नयन, जन, वन, सुमन, उडगन,किरण धन,
जानता अभिसार का चिर-मिलन पथ मुझको बुलाता,
कौन गाता? कौन गाता?...

..and

मृत्यु, प्यारी मृत्यु, मन की मीत, आ तू पास मेरे,
बोल कानों में कि प्राणों में समां लूं बोल तेरे|

Amen!...

Friday, December 10, 2010

टूटी हुई लकीरें ले कर हाथों में, कितने ही मासूम बहारों के सपने

टूटी हुई लकीरें ले कर हाथों में,
कितने ही मासूम बहारों के सपने
बिखर चुके हैं मरू की जलती रेती में
दूर हुए हैं वही, कभी जो थे अपने...

पर इससे क्या! - हम सपने नए बनायेंगे
कुछ सपने जो जीवन की जलती रेती में
अंकुर फोड़ेंगे हंसती हुई बहारों के
भीगी आशाएं लिए झुलसते सीने में...

...पर अंधे सी लाठी जैसे मेरे सपने
कब तक सह लेंगे बोझ थके इन हाथों का
कब तक बेराह भटकने को दे अर्थ नए
आशाएं देगा दीप अँधेरी रातों का...

अंधियारे में ही उल्हझ, बुझा दूंगा दीपक
सपने बिखरा कर स्वयं बनूँगा इक सपना
जो स्वयं खोजता था साथी अंधियारे में
बन कर रह जाएगा साथी केवल अपना...

- May 11, '73