Tuesday, October 29, 2013

मेरी बालकनी के नीचे से... हर साल एक कारवां गज़र जाता है

मेरी बालकनी के नीचे से
हर साल एक कारवां गज़र जाता है...

चहकती हंसी, उम्मीदों भरी बातें
थिरकते पैरों में बनती कई यादें
जो ज़िन्दगी भर इन मुसाफिर को
हंसांएगी, रुलायेंगी - कुछ बातें, कुछ यादें...

...

सोचता हूँ, इक दिन मिलूं तो पूछूँगा
कहाँ किया है दफ्न सपनों को
ये पत्थरों का शहर कैसा है
जहाँ  शीशे में सब बंध जाता है..

तुम्हारी अपनी दास्ताँ भले ही सही
ग़र बता दो कि ये  कैसे किया
रूह से फैसला वो ख्वाबों का
जो उभरने से पहले बीत गए...

ये दास्ताँ भले तुम्हारी है
मगर...
मेरी बालकनी के नीचे से
हर साल एक कारवां गज़र जाता है...

Saturday, October 26, 2013

...for these handful of dreams

When you told me
without knowing
that…
there is no home!
…not for me.

I looked at you
trying to read your eyes....
They were sincere
understanding
and frank…

I was not surprised.

I had this feeling

that
Home is a myth
created by the frightened cavemen…
that
it is the ideology of
of the lost traveller…
that it is the dream
of a crippled child….

And I had also known…
…that a part of me
is frightened, crippled and lost…

maybe...
I need a home more than you…
maybe...
I can also afford not to need it

So
let us, my dream,
face together
this dreamless world…

...even if,
to face it
I have to crush my dreams…

Maybe
it is for these handful of dreams
that
I want to defy the world.

- Sept 29th, 1976 (Lucknow/ Kanpur)

Wednesday, October 23, 2013

आदि-अंत सब भूल चूका हूँ, ये कैसी उर-गति पहचानी ?...

आज अधूरी वही कहानी
यदि अनन्त यति मिटा सके तो
हर युग नें दोहराया जिसको
बात सुना दे वही पुरानी....

स्वर यदि जब बैरी बन जाए
मौन नयन ही कह उठते हैं
उर को जो है कथा सुनानी...

उर रोता तो नयन भीगते
बन जाती अभिव्यक्ति स्वयं ही
लिख देता आँखों का पानी...

नहीं कहीं दीपक की झिलमिल
भटक-भटक कर बना रहा हूँ
खोयी, अदिश, राह अनजानी...

ये पुकार किसकी आती है
आदि-अंत सब भूल चूका हूँ
ये कैसी उर-गति पहचानी ?...

- Dec 8th, 1973 (Lucknow)
***

Sunday, October 06, 2013

एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

एक सुलझी डोर से दिखते रहे
एक उलझी सी कहानी बन गए
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

हाथ बढ़ते ज़िन्दगी छूने लिए
पर सहमते, रास्तों के मोड़ पर
ठिठकते पग ख्वाब की दहलीज पर
दो कदम आगे बढ़े, फिर मुड़ गए
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

एक अंतर में धधकती आग थी
ज़िन्दगी में उलझने की चाह थी
मगर वो किरदार जो अपना लगे
दास्ताँ में खोजते ही रह गए
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

एक मुझमें ही कोई था अजनबी
कभी अपना था, पराया था कभी
कभी मिलता, फिर चला जाता कहीं
खुद को उसमें ढूंढते ही रह गए
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

इक कहानी जो सुनानी थी हमें
अपनी ख़ामोशी के खंडहर में कहीं
ज़िन्दगी के हाशिये पर, लफ्ज़ कुछ
बनके बस आधी लकीरें रह गए
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

जानता मुझमें खुदा, हैवान भी
ज़िन्दगी की सांस भी, शमशान भी
महज़ इक कतरा मैं, औ’ ये कायनात
इसमें हम बहते रहे, बहते गए
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....