Saturday, April 30, 2011

बोलो प्रेयसि! किस पथ जाएँ, सारे ही पथ भाते हैं अब....

I guess I had written this in '75-'76... and (re)discovered it today.

Those were the emotionally tumultous days, when finding the meaning of oneself - and all the opportunities which life offered -, one's significant relationships... and where one was heading to, was so crucial...



बोलो प्रेयसी! किस पथ जाएँ
सारे ही पथ भाते हैं अब....

लहरों पर हंसती प्रतिछवियां
सागर पर खोती सरिताएं,
आज सभी से शब्द चुरा कर
अधरों पर अमृत बिखराए,
गीत चिरंतन गाते हैं हम...

कविता बन जाती स्मृतियाँ,
चाहे कितनी भी सूखी हों
बीती ऋतू की मधुर कहानी,
पुस्तक-पृष्ठों में मुरझाये
सूखे फूल सुनते हैं अब...

जीवन की भटकी पगडण्डी
उल्हझ गयी तेरे केशों में,
हम चंचल, मोही दो राही
पलकों पर कुछ स्वप्न सजाये
जीवन-दिशा बनाते हैं अब....

तुमने जो माँगा है, प्रेयसि!
वो तो है अधिकार तुम्हारा
बाहों में आ कर रो लें या
थक कर आँचल में सो जाएँ,
जीवन भर के नाते हैं सब....