जीवन की अगणित राहों में
एक राह पर पथिक बना मैं
ढूंढ रहा था सार स्वयं का
वर्षों से था भटक रहा मैं
साँसों में आशाएं ले कर
संजो ह्रदय में स्वप्न, लक्ष्य का
पग-पग में पाने को आतुर
सार, सत्य-सौंदर्य-मृत्यु का
प्रश्नों की उलझी रेखाओं
में कितनी ही बार उल्हझ कर
जीवन के अर्थों को मैंने
खोजा था, हर पग में प्रतिपल
किन्तु सभी प्रश्नों का उत्तर
मिला अधूरेपन का अनुभव
जीवन मौन रहा, खली सा
बना रहा सांसों का उत्सव
***
एक शाम जीवन के तट पर
सारहीन भटकन से थक कर
उदासीन बहती लहरों से
उल्हझ गया मेरे उर का स्वर:
"इतने युग तो बीत चुके हैं
किन्तु अपरिचित है तू अब भी
तेरा लक्ष्य नहीं क्या कोई?
दिशाहीन क्या तेरी भी गति?
तू शाश्वत है, तेरी इन
लहरों में जीवन का अर्थ छुपा है
फिर भी मौन, निरुत्तर सा तू
उदासीन बहता रहता है
क्या मैं यूँ ही भटक-भटक कर
किसी एक पल मिट जाऊँगा?
तेरा इक उपहास-मात्र मैं
एक निरर्थक स्वप्न स्वयं का?!
तू जीवन, मैं जीवित हूँ, तब
यह तेरा मुझसे अभिनय क्या?
आज बता दे तू मैं क्या हूँ,
मेरी परिभाषा परिचय क्या?"