Friday, May 25, 2012

...आज बता दे तू मैं क्या हूँ, मेरी परिभाषा परिचय क्या?

Those were the heady, perplexing, intense days in life. You are just something 20+, thrown out in a world which is both enticing for all the freedom and option to carve out what you can be - and puzzling as to how to put it all together to make sense. As the whole life awaited to unfold itself, the sense of fading away of moments and memories made the issues of dying - and finding the meaning of Life - so very crucial/real then.


जीवन की अगणित राहों में
एक राह पर पथिक बना मैं
ढूंढ रहा था सार स्वयं का
वर्षों से था भटक रहा मैं

साँसों में आशाएं ले कर
संजो ह्रदय में स्वप्न, लक्ष्य का
पग-पग में पाने को आतुर
सार, सत्य-सौंदर्य-मृत्यु का

प्रश्नों की उलझी रेखाओं
में कितनी ही बार उल्हझ कर
जीवन के अर्थों को मैंने
खोजा था, हर पग में प्रतिपल

किन्तु सभी प्रश्नों का उत्तर
मिला अधूरेपन का अनुभव
जीवन मौन रहा, खली सा
बना रहा सांसों का उत्सव

***

एक शाम जीवन के तट पर
सारहीन भटकन से थक कर
उदासीन बहती लहरों से
उल्हझ गया मेरे उर का स्वर:

"इतने युग तो बीत चुके हैं
किन्तु अपरिचित है तू अब भी
तेरा लक्ष्य नहीं क्या कोई?
दिशाहीन क्या तेरी भी गति?

तू शाश्वत है, तेरी इन
लहरों में जीवन का अर्थ छुपा है
फिर भी मौन, निरुत्तर सा तू
उदासीन बहता रहता है

क्या मैं यूँ ही भटक-भटक कर
किसी एक पल मिट जाऊँगा?
तेरा इक उपहास-मात्र मैं
एक निरर्थक स्वप्न स्वयं का?!

तू जीवन, मैं जीवित हूँ, तब
यह तेरा मुझसे अभिनय क्या?
आज बता दे तू मैं क्या हूँ,
मेरी परिभाषा परिचय क्या?"

Saturday, May 12, 2012

पूँछ लूं मैं नाम तेरा...

पूँछ लूं मैं नाम तेरा...
मिलन रजनी हो चुकी, विच्छेद का अब है सबेरा...

जा रहा हूँ - और कितनी देर अब विश्राम होगा -
तू सदय है किन्तु तुझको और भी तो काम होगा
प्यार का साथी बना था, विघ्न बनने तक रुकूं क्यूँ?
सम्हझ ले, स्वीकार कर ले, यह कृतज्ञ प्रणाम मेरा...
पूँछ लूं मैं नाम तेरा...

और होगा मूर्ख जिसने चिर-मिलन की आस पाली -
'पा चुका, अपना चुका' - है कौन ऐसा भाग्यशाली?
इस तड़ित को बाँध लेना, दैव से मैंने न माँगा -
मूर्ख इतना हूँ नहीं मैं, इतना नहीं है भाग्य मेरा...
पूँछ लूं मैं नाम तेरा...

श्वास की हैं दो क्रियाएँ - खींचना, फिर छोड़ देना,
कब भला संभव हमें इस अनुक्रम को तोड़ देना?
श्वास की इस संधि-सा है, इस जगत में प्यार का पल,
रुक सकेगा कौन कब तक बीच पथ में डाल डेरा||
पूँछ लूं मैं नाम तेरा...

घुमते है गगन में जो दीखते स्वच्छंद तारे
एक आँचल में पड़े भी अलग रहते हैं बिचारे
भूल में पल-भर भले छू जाएँ इनकी मेखलाएँ -
दास मैं भी हूँ नियति का, क्या भला विश्वास मेरा!
पूँछ लूं मैं नाम तेरा...

प्रेम का चिर-एक्य कोई मूढ़ होगा तो कहेगा
विरह की पीड़ा न हो तो प्रेम क्या जीता रहेगा?
जो सदा बांधे रहे वह एक कारावास होगा -
घर वही है जो थके को रैन भर का दे बसेरा!
पूँछ लूं मैं नाम तेरा...

प्रकृति है अनुभूति, वह रस-दायिनी निष्पाप भी है,
मार्ग उसका रोकना ही पाप भी है, श्राप भी है,
मिलन हो मुख चूम लें; आई विदा लें राह अपनी -
मैं न पूंछू, तुम न जानो क्या रहा अंजाम मेरा!...
पूँछ लूं मैं नाम तेरा...

रात बीती, यद्यपि इसमें संग भी था, रंग भी था,
अलस अंगों में हमारे स्फूर्त एक अनंग भी था;
तीन की उस एकता में प्रलय ने तांडव किया था -
सृष्टि-भर को एक क्षण में बाहुओं ने बाँध घेरा!
पूँछ लूं मैं नाम तेरा...

सोच मत 'यह प्रश्न क्यूँ जब अलग ही हैं मार्ग अपने?'
सच नहीं होते, इसी से भूलता है कौन सपने?
मोह हमको है नहीं, पर द्वार आशा का खुला है -
क्या पता फिर सामना हो जाये तेरा और मेरा!
पूँछ लूं मैं नाम तेरा...

कौन हम तुम? दु:ख-सुख होते रहे, होते रहेंगे;
जान कर परिचय परस्पर हम किसे जा कर कहेंगे?
पूछता हूँ क्योंकि आगे जानता है क्या बदा है -
प्रेम जग का, और केवल नाम तेरा, नाम तेरा!
पूँछ लूं मैं नाम तेरा...
मिलन रजनी हो चुकी, विच्छेद का अब है सबेरा...
-अज्ञेय

Monday, May 07, 2012

The Theosophist who loved Parry Mason novels...

There are memories/ histories and recollections which need to be written down.

This is one of them… a sort of ongoing process of (re)discovering – literally, as one excavates those memories - how one became what keeps on becoming…

One of the significant (and implicitly moulding) influences in my early teenage days was my grandfather.

An ardent Theosophist (someone who hobnobbed with Annie Besant), a teacher. His career (as we call it now) ranged from being private tutor to the JK Singhania’s son to being the Principal of the Theosophical Society School, Kamachha, Varanasi… (he resigned from the Singhania’s tutorship because he resented being treated as an ‘employee’ and not as a teacher – a parallel which I find in my father’s resignation from being the Modi’s personal physician in ‘40s!)

My grandfather’s principles also led to his rather shaky career path - and apparently, from what I could gather, also resulted in some tumultuous/ insecure upbringing of my uncles… some who never forgave him for that!)...

In any case, he came into my life when I was around 12-13. My grandmother had expired in ’63; he had stayed with one of my uncles in Delhi, and then came to stay with us in Faizabad/Lucknow in late-‘60s/ early-‘70s, where my father was posted then.

Babuji – as my grandfather was called – had lost his eye-sight by then. Looking back, I always think that this can be the worse thing which can happen to a teacher, whose only life-line has been what he reads.

But he picked up with life as it unfolded for him – and with a gusto!

His only contact with the rest of the world was a transistor/radio… and through that he picked up and mastered things/ events which were quite alien to his previous life…

… we used to have a peon, Tulsi, who was deputed to take care of him (ah, the feudal bureaucratic set-up!).. and Babuji, who would intently listen to ‘Krishi Darshan’, and will have pretty educated discussions on agriculture with Tulsi...

… for a person, whose life was pretty cognitive/ideological, Babuji picked up (through the commentaries on the transistor) the intricacies of positions in cricket (e.g., mid-leg, gulley, etc.)… and the mysterious ways in which tennis scores are counted in Wimbledon…

I learnt all these from him – from a blind person, who had never known these spheres of life (maybe have despised them too!)

I used to be his ‘personal secretary’ then. I would read out the letters (so many!) he would receive, and take dictation (on postcards and inlands) to respond… that ‘peek-in’ to his life, relationships and conversation too was a learning for life

As his ‘personal secy’, I remember, I also used to read out novels to him – chapter-by-chapter/day-by-day….. and that’s how I guess I ended up reading up so many Parry Mason novels when I was growing up!

Babuji used to love those... ...and the letters which he would receive (and I would respond to)... his life-line to his life

Somewhere in mid '70s those letters stopped coming with the same regularity... dont know why

One day, in Jan/Feb '76, he said/ told me something like - the world/life is going on; there is no reason to live (OK, not exactly, but something like that as remember) ... and then he let go his life...

...his internal life-support systems let go (maybe he allowed that)... I still recall a call from my elder brother on (I think) April 2nd from KGMC/Lucknow, that it is over more than 30+yrs now,

that he is not there anymore!... or maybe he is!

in any case, this post was a tribute to that Theosophist who also loved Parry Mason novels on his 125th birthday - today!