अज्ञेय - Sachchidananda Hirananda Vatsyayana “Agyeya” - was also one of the many of the "resident poets/authors" when I was growing up...
...the kind who reside in one's mind and help making sense of life when one is growing/struggling to make sense of what the hell this is all about in one's teens and early 20s, and mould the templates/scripts through which one continues to view/ live/ interpret life for decades to come....
पूछ लूँ मैं नाम तेरा!
मिलन-रजनी हो चुकी विच्छेद का अब है सबेरा।
जा रहा हूँ, और कितनी देर अब विश्राम होगा,
तू सदय है किन्तु तुझ को और भी तो काम होगा!
प्यार का साथी बना था, विघ्न बनने तक रुकूँ क्यों?
समझ ले, स्वीकार कर ले यह कृतज्ञ प्रणाम मेरा!
और होगा मूर्ख जिस ने चिर-मिलन की आस पाली-
पा चुका, अपना चुका-है कौन ऐसा भाग्यशाली!
इस तडि़त् को बाँध लेना दैव से मैं ने न माँगा-
मूर्ख उतना हूँ नहीं, इतना नहीं है भाग्य मेरा!
श्वास की हैं दो क्रियाएँ-खींचना, फिर छोड़ देना,
कब भला सम्भव हमें इस अनुक्रम को तोड़ देना?
श्वास की उस सन्धि-सा है इस जगत् में प्यार का पल-
रुक सकेगा कौन कब तक बीच पथ में डाल डेरा।
घूमते हैं गगन में जो दीखते स्वच्छन्द तारे,
एक आँचल में पड़े भी अलग रहते हैं बिचारे!
भूल से पल-भर भले छू जायँ उन की मेखलाएँ।
दास मैं भी हूँ नियति का क्या भला विश्वास मेरा!
प्रेम को चिर-ऐक्य कोई मूढ़ होगा तो कहेगा-
विरह की पीड़ा न हो तो प्रेम क्या जीता रहेगा?
जो सदा बाँधे रहे वह एक कारावास होगा-
घर वही है जो थके को रैन-भर का हो बसेरा!
प्रकृत है अनुभूति; वह रस-दायिनी निष्पाप भी है,
मार्ग उस का रोकना ही पाप भी है, शाप भी है;
मिलन हो, मुख चूम लें; आयी बिदा, लें राह अपनी-
मैं न पूछूँ, तुम न जानो क्या रहा अंजाम मेरा!
रात बीती, यदपि उस में संग भी था, रंग भी था,
अलस अंगों में हमारे स्फूर्त एक अनंग भी था;
तीन की उस एकता में प्रलय ने तांडव किया था-
सृष्टि-भर को एक क्षण-भर बाहुओं ने बाँध घेरा!
सोच मत, 'यह प्रश्न क्यों जब अलग ही हैं मार्ग अपने!'
सच नहीं होते, इसी से भूलता है कौन सपने?
मोह हम को है नहीं पर द्वार आशा का खुला है-
क्या पता फिर सामना हो जाय तेरा और मेरा!
कौन हम-तुम? दु:ख-सुख होते रहे, होते रहेंगे,
जान कर परिचय परस्पर हम किसे जा कर कहेंगे?
पूछता है क्योंकि आगे जानता हूँ क्या बदा है-
प्रेम जग का और केवल नाम तेरा, नाम मेरा!
पूछ लूँ मैं नाम तेरा!
मिलन-रजनी हो चुकी विच्छेद का अब है सबेरा!
- अज्ञेय
...the kind who reside in one's mind and help making sense of life when one is growing/struggling to make sense of what the hell this is all about in one's teens and early 20s, and mould the templates/scripts through which one continues to view/ live/ interpret life for decades to come....
पूछ लूँ मैं नाम तेरा!
मिलन-रजनी हो चुकी विच्छेद का अब है सबेरा।
जा रहा हूँ, और कितनी देर अब विश्राम होगा,
तू सदय है किन्तु तुझ को और भी तो काम होगा!
प्यार का साथी बना था, विघ्न बनने तक रुकूँ क्यों?
समझ ले, स्वीकार कर ले यह कृतज्ञ प्रणाम मेरा!
और होगा मूर्ख जिस ने चिर-मिलन की आस पाली-
पा चुका, अपना चुका-है कौन ऐसा भाग्यशाली!
इस तडि़त् को बाँध लेना दैव से मैं ने न माँगा-
मूर्ख उतना हूँ नहीं, इतना नहीं है भाग्य मेरा!
श्वास की हैं दो क्रियाएँ-खींचना, फिर छोड़ देना,
कब भला सम्भव हमें इस अनुक्रम को तोड़ देना?
श्वास की उस सन्धि-सा है इस जगत् में प्यार का पल-
रुक सकेगा कौन कब तक बीच पथ में डाल डेरा।
घूमते हैं गगन में जो दीखते स्वच्छन्द तारे,
एक आँचल में पड़े भी अलग रहते हैं बिचारे!
भूल से पल-भर भले छू जायँ उन की मेखलाएँ।
दास मैं भी हूँ नियति का क्या भला विश्वास मेरा!
प्रेम को चिर-ऐक्य कोई मूढ़ होगा तो कहेगा-
विरह की पीड़ा न हो तो प्रेम क्या जीता रहेगा?
जो सदा बाँधे रहे वह एक कारावास होगा-
घर वही है जो थके को रैन-भर का हो बसेरा!
प्रकृत है अनुभूति; वह रस-दायिनी निष्पाप भी है,
मार्ग उस का रोकना ही पाप भी है, शाप भी है;
मिलन हो, मुख चूम लें; आयी बिदा, लें राह अपनी-
मैं न पूछूँ, तुम न जानो क्या रहा अंजाम मेरा!
रात बीती, यदपि उस में संग भी था, रंग भी था,
अलस अंगों में हमारे स्फूर्त एक अनंग भी था;
तीन की उस एकता में प्रलय ने तांडव किया था-
सृष्टि-भर को एक क्षण-भर बाहुओं ने बाँध घेरा!
सोच मत, 'यह प्रश्न क्यों जब अलग ही हैं मार्ग अपने!'
सच नहीं होते, इसी से भूलता है कौन सपने?
मोह हम को है नहीं पर द्वार आशा का खुला है-
क्या पता फिर सामना हो जाय तेरा और मेरा!
कौन हम-तुम? दु:ख-सुख होते रहे, होते रहेंगे,
जान कर परिचय परस्पर हम किसे जा कर कहेंगे?
पूछता है क्योंकि आगे जानता हूँ क्या बदा है-
प्रेम जग का और केवल नाम तेरा, नाम मेरा!
पूछ लूँ मैं नाम तेरा!
मिलन-रजनी हो चुकी विच्छेद का अब है सबेरा!
- अज्ञेय