Friday, July 19, 2013

... और तू बेवजह भटकता रहा, चलता रहा

हमने सोचा था कि दो-चार कदम चल लेंगे
और ये  दास्ताँ कहाँ से चली
मोड़ के रास्तों की भटकन में
ढूंढती-ढूंढती कहाँ लायी..

ये वो  मंजिल नहीं, जहाँ के लिए
हमने सौदा किया था साहिल से
मगर वो बांवरी सी कुछ लहरें
हमें फुसला के फिर यहाँ लायीं ...

कभी लगता है कि ये ही मंजिल है
कभी लगता कि ये पड़ाव के क्षण
एक दिन रूह फिर बताएगी
मैं यहीं थी, यहाँ आई

... और तू बेवजह भटकता रहा, चलता रहा
 

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