Saturday, October 24, 2009

कहाँ तक ज़िन्दगी में भटकने की विवशताएं हैं...


2६ अप्रैल '८० को लिखी यह पंक्तियाँ...
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सभी जो साथ थे वो पा गए अपने किनारों को
हम्ही बस हैं की जिनकी उलझनें अब भी दिशायें हैं...

कभी जब ऊब कर अपने बनाए आज से बच कर,
पुराने रास्तों पर फिर भटकते अजनबी बन कर,
किसी सुनसान झुरमुट से, हमारा ही कोई साया,
निकल कर पूछता है, व्यंग की मुस्कान-सी भर कर,
"मुझे क्यों भूलते हो जब मुझे ही खोजते हो तुम,
तुम्हारी आत्मा हूँ मैं, शुरू मुझसे हुए थे तुम!"

सहम कर हम ठिठक जाते, उसी सुनसान झुरमुट पर,
स्वयं को आंकने की चाह से यह पूछ लेते हैं,
"सभी ने पा लिया सन्दर्भ अपना, एक हम ही क्यूँ
अभी तक ढूंढते, दोहरा रहे अपनी पुकारों को?
कहाँ तक ज़िन्दगी में भटकने की विवशताएं हैं?॥"

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