पंछी, दरिया, पर्वत और वन,
इन्हे ढूंढ ही लूँगा इक दिन,
'गर रहे सलामत ये पागलपन...
साँसों में जीवन की हलचल,
लम्हों में खोती स्मृतियाँ,
इन्हे बाँध कर एक कहानी,
कभी लिखूंगा मैं इक दिन...
'गर रहे सलामत ये पागलपन...
एक कारवां के हम राही
ढूंढ रहे थे अपनी मंजिल,
क्या खोया था, क्या पाया था
शायद सुना सकूंगा इक दिन...
'गर रहे सलामत ये पागलपन...
पथिक स्वयं हूँ, पथ भी हूँ मैं,
अपने पथ-चिन्हों के पीछे
खोज रहा हूँ अपना साया
शायद मिल पाऊँगा इक दिन...
'गर रहे सलामत ये पागलपन...
सागर के साहिल पर बैठा
लहरों की हलचल को सुनता
गीत बनाता हूँ, ख़ुद सुनता,
तूफ़ान भी आएगा इक दिन...
'गर रहे सलामत ये पागलपन॥
जीवन के कितने ही पथ हैं,
हर पथ पर, कितने ही राही,
साथ चले, बिछुडे, कितने ही
मिल पायेंगे शायद इक दिन...
'गर रहे सलामत ये पागलपन...
पंछी भी हूँ, दरिया हूँ मैं,
वन में छुपा हुआ पर्वत हूँ,
धरती हूँ मैं ? या अम्बर हूँ?..
शायद जान सकूंगा इक दिन....
'गर रहे सलामत ये पागलपन...
***
Thursday, November 05, 2009
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6 comments:
wow!
great ! Found link to this in Gautam Ghosh's Facebook profile !
Amazing poetry!
Shall come back for more, gar rahe salamat ye paagalpan... :-)
awesome poetry :)
Dil wah wah kar raha hai !!
Me too got link in Gautam Ghosh's Twitter stream :D
Looking forward for more such pieces.
~ Kittu
Thanks folks! for your appreciation - and to GG also for posting the link on FB/Twitter...
this was after many many years that I wrote any 'original' verses - though really not 'original'... the "Pagalpan" theme was actually inspired by Shafqat Amaanat Ali Khan's song 'pagalpan'...but well, an inspiration is an inspiration...
Awesome!!!
:) :) :)
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