Saturday, November 28, 2009

स्वयं को खोया, स्वयं का सार पाने के लिए..

स्वयं को खोया,
स्वयं का सार पाने के लिए...

जागते सपने सरीखा,
एक धुंधली रौशनी सा,
प्रश्न बन कर आज कैसा,
ज्वार यह उठता कोई आकार पाने के लिए...

बह रहा जीवन निरन्तर,
ह्रदय-गति पर साँस का स्वर
गूंजता अनजान लय पर
पा ना पाया एक लहर, उस पार जाने के लिए...

साँस में अंधड़ बसा कर,
ह्रदय में गर्जन समा कर,
पलक में वर्षा सजा कर,
एक बादल भटकता आधार पाने के लिए...

खोजता था कौन सी छवि,
मैं स्वयं में, भ्रमित-सा कवि,
रच रहा था भाग्य की गति,
भटकता था प्यार भी जब प्यार पाने के लिए...

क्षितिज पर सपना सुनहरा,
खींचने वाला चितेरा,
मैं स्वयं या रूप तेरा,
था, मचल कर जो बढ़ा अभिसार पाने के लिए...

और वोह अभिसार का कल,
युग समेटे हुए कुछ पल,
स्वयं का भ्रम, भाग्य का छल,
चेतना विस्मृत हुयी, स्मृति बनाने के लिए...

पथिक भी मैं, स्वयं पथ हूँ,
चेतना का एक व्रत हूँ,
एक युग-गाथा अकथ हूँ,
निकल आया स्वर्ग से संसार पाने के लिए...

वासना, भ्रम, क्रोध, माया,
भ्रमित मन की ताजी काया,
आज फिर अपना रहा मैं,
पूर्णता की एक परिभाषा बनाने के लिए...

काल की अद्भुत प्रथा है,
हर दिवस गत की चिता है,
इसी धरा-हीनता में,
बाँध लूँ मैं सेतु पल से पल मिलाने के लिए...

कुछ अधूरे गीत हैं हम,
दो नदी के द्वीप हैं हम,
भटकते से बह रहे हैं,
एक दूजे में कोई अधिकार पाने के लिए...

स्वप्न नयनों को समर्पित,
ध्येय - मन के भ्रम - विकल्पित,
आस उर को दे, चला मैं,
आज जीवन के नए आधार पाने के लिए...

प्रश्न कैसे, अर्थ कैसा,
प्रेम का सन्दर्भ कैसा,
एक तुम हो, एक मैं हूँ,
फिर कहूं कुछ और क्यूं सीमा बनाने के लिए...

और कितने अनुभवों में,
सत्य की अनुभूति खोजूं,
साँस हो, संवेदना हो,
और क्या चाहूं स्वयं की थाह पाने के लिए...

स्वयं को खोया,
स्वयं का सार पाने के लिए...
========
These verses were written over a period of 3-4-5 years in the late '70s-early '80s - when I met my Mephistopheles (job, adulthood, responsibilities...) - took his offer, but told him that one day I will beat him, and take back my soul... so be it!!
:0)

Saturday, November 14, 2009

अश्रु चाहे कल बनूँ, पर आज तो सपना बना कर...

मानता हूँ फिर बहेंगी आंधियां,
घनघोर बरसेंगी घटायें
टूट जायेंगे सभी सपने हमारे
बिजलियों की चोट खा कर,
बह चलेंगे अश्रु बन कर,
क्रूर हंस देंगी हवाएं

आज बन हम फूल जो मुस्का रहे,
कल सूख कर तिनका बनेंगे,
उजड़ कर उपवन हमारा
जलेगा शमशान जैसा
कली के आंसू बहेंगे...

कल तुम्हारे आंसुओं के साथ मैं भी बह चलूँगा,
आज तो लेकिन बुला लो,
अश्रु चाहे कल बनूँ, पर आज तो सपना बना कर,
प्रिये! आंखों में सुला लो...
----
३० मई '७४ Lucknow

Thursday, November 05, 2009

'गर रहे सलामत ये पागलपन...

पंछी, दरिया, पर्वत और वन,
इन्हे ढूंढ ही लूँगा इक दिन,
'गर रहे सलामत ये पागलपन...

साँसों में जीवन की हलचल,
लम्हों में खोती स्मृतियाँ,
इन्हे बाँध कर एक कहानी,
कभी लिखूंगा मैं इक दिन...
'गर रहे सलामत ये पागलपन...

एक कारवां के हम राही
ढूंढ रहे थे अपनी मंजिल,
क्या खोया था, क्या पाया था
शायद सुना सकूंगा इक दिन...
'गर रहे सलामत ये पागलपन...

पथिक स्वयं हूँ, पथ भी हूँ मैं,
अपने पथ-चिन्हों के पीछे
खोज रहा हूँ अपना साया
शायद मिल पाऊँगा इक दिन...
'गर रहे सलामत ये पागलपन...

सागर के साहिल पर बैठा
लहरों की हलचल को सुनता
गीत बनाता हूँ, ख़ुद सुनता,
तूफ़ान भी आएगा इक दिन...
'गर रहे सलामत ये पागलपन॥

जीवन के कितने ही पथ हैं,
हर पथ पर, कितने ही राही,
साथ चले, बिछुडे, कितने ही
मिल पायेंगे शायद इक दिन...
'गर रहे सलामत ये पागलपन...

पंछी भी हूँ, दरिया हूँ मैं,
वन में छुपा हुआ पर्वत हूँ,
धरती हूँ मैं ? या अम्बर हूँ?..
शायद जान सकूंगा इक दिन....
'गर रहे सलामत ये पागलपन...

***