These two poems were written some 32 & 33yrs back - around this time of the year...
well... everything returns, when you watch the river (even though you never step into the same river twice!)...
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स्वप्निल सा था साथ तुम्हारा,
कोहरे में
छिप गया अँधेरा...
धुंधला, धुंधला,
भीगा, भीगा,
तारों पर मखमली बसेरा...
हाथ पकड़ कर
साथ चले तो
पग-पग पर
धरती पर उतरा
सपनों भरा यथार्थ हमारा...
.....
A year later:
हाँ, याद है कोहरे भरी वोह शाम
सहमा सा अँधेरा
बर्फ की चादर सरीखा
ठिठका हुआ, उलझा हुआ, रुकता धुंआ
जो तार पर थम, सांस में घुलता रहा...
कुछ शब्द जो सहमे हुए,
बह कर अधर से रुक गए
जडवत लटकते शून्य में...
संदिग्धता थी ,
टूट जायेंगे सभी यदि गिर पड़े...
... मासूम से वे शब्द जो सहमे खड़े थे मौन में...
पर अचानक एक आँचल ने समेटा,
आह बन कर सांस दी
वो जी उठे...
कुछ शब्द जो तुमने कहे, जुड़ते गए
पग, पग बढे, पाते, स्वयं को खोजते
स्वर-शब्द के स्पर्श से
स्पर्श तक
पग-पग मिले, मिलते रहे...
उस शाम से, इस शाम तक...
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20-21 years later, it was the same time/month of the year... and the winter and mist took an entirely different meaning...
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