Wednesday, December 23, 2009
हम सब धुंध भरे कमरों में...
हम सब
धुएं भरे कमरे में
अलग-अलग बंद
कुच्छ भटके हुए सार हैं
जिनका सन्दर्भ खो चुका है..
ओझल हाथों से
पथरीली दीवालों को टटोलातें हैं
कि शायद कोई शिलालेख मिल जाये;
...लेकिन ये दीवारें नयी हैं,
इनसे सिर्फ हाथ पर चूने की सफेदी लग जाती है
...कोई चिन्ह नहीं, कोई उभार नहीं,
जो हमें हमारी खोयी आकृति वापस दे दे
शायद यदि एक दूसरे को छू पाते,
तो कुछ मिल जाता
...लेकिन यह कमरे बंद हैं, अलग हैं...
कुछ सुराख़ हैं, जिनके धुंधले दायरे से
एक दूसरे का निशाना पा जाते हैं
...और तब लगता है की हम
अकेले नहीं हैं...
...और भी बहुत से हैं,
जो अलग-अलग
अपने-अपने
धुंध भरे बंद कमरों में
अपना सन्दर्भ टटोले रहे हैं!...
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