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चिर-यज्ञ की समिधा-सा जलने को आतुर
एक वेदी ही तो मांगता हूँ,
या - अपना यज्ञ-कुंड भी, मुझको ही बनना होगा
अपनी ही अग्नि में, अपने ही कारण जलना होगा ||
शाम के सूरज की पिघलती परिधि-सा
मेरा अस्तित्व
पेड़ो की चोटी पर खिंचे,
सूरज के पीले पद-चिन्हों से
पूछ रहा पश्चिम का पथ...
..या अपने ही जीवन के अस्तांचल मैं
मुझको पिघलना होगा...
कितनी सीमाओं के केंद्र-बिंदु बिखर गए
धरती पर,
बांधते परिधियों में धरती अम्बरतल को,
लगता है रचना ये, बंट-बंट कर टुकड़ों में
बिखर-बिखर जायेगी...
...टूटे अस्तित्वों को,
बाहें फैला कर के
घेरे में भरना होगा...
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