Sometimes, I would like to go back in time and meet this person - an earlier "me"- who wrote these verses, when I was 21-yr old/young...
चिर-यज्ञ की समिधा-सा जलने को आतुर
एक वेदी ही तो मांगता हूँ,
या - अपना यज्ञ-कुंड भी, मुझको ही बनना होगा
अपनी ही अग्नि में, अपने ही कारण जलना होगा ||
शाम के सूरज की पिघलती परिधि-सा
मेरा अस्तित्व
पेड़ो की चोटी पर खिंचे,
सूरज के पीले पद-चिन्हों से
पूछ रहा पश्चिम का पथ...
..या अपने ही जीवन के अस्तांचल मैं
मुझको पिघलना होगा...
कितनी सीमाओं के केंद्र-बिंदु बिखर गए
धरती पर,
बांधते परिधियों में धरती अम्बरतल को,
लगता है रचना ये, बंट-बंट कर टुकड़ों में
बिखर-बिखर जायेगी...
...टूटे अस्तित्वों को,
बाहें फैला कर के
घेरे में भरना होगा...
Saturday, August 21, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment