...that was when I was just 17yr old, back in '72!
... I was still trying to come to terms with my life (and with the vague awareness of a 'sense' of death/ that it will not last... was trying to grapple with the inconsequentiality of being/life, Harlequin Complex... with trying to be twice-born - a द्विज)...
...and that was when an idol, Meena Kumari (for me, and many of my other co-travellers) then - died. Gulzar came out with a book of her verses, and HMV with - I Write, I Recite
That spurred many poems from many of us then.
these were mine...
...as I used to sit idle on a chair in the varandah of B-52, Mahanagar, Lucknow, looking at the setting sun (thankfully, I had a family who let me "be" - though, not sure if I was allowed to 'be' me - by 'design' or by 'default'...not that it matters anymore :)
...in any case, these were the few verses from that year, that era...(recovered from from some old diaries)
--
शाम घिरती उदास राहों पर
मेरा सफ़र निढाल हो जाता
दूर से इक पुकार आती थी
वो भी खामोशियों में खो जाती
धुआं-धुआं-सा मेरी कायनात में घिरता
घुटी-घुटी-सी दरख्तों में कली मुरझाती
कफ़न में और मुझमें पास फासले होते
डरा-डरा सा ढूंढता हूँ अपनी परछाई
***
थका-थका सा बदन
कदम कुछ बुझे-बुझे से हैं
सांस भी बोझ बन कर
जम रही है सीने में...
...लग रहा जिस्म टूट-टूट बिखर जाएगा
कैसा माहौल है ये
बेसुरी ख़ामोशी है
उफ़! किसे ढो कर मैं लिए जा रहा हूँ
ज़िन्दगी की लाश है
या साँसों में जकड़ी मौत!
***
साँसे रह जाती सीने में
धुंधली सी ग़ज़ल बन कर
धड़कन भी बुझती सी तार छेड़ जाती है
जिस्म डूबता-सा है
दर्द भरी लहरों में
ज़िन्दगी एक कसक बन
रह जाती है दब कर...
शाम एक खामोश-सा
साया बन घिर आती...
...ऊबे हुए दायरों में
धुआं-धुआं छा जाता,
ख्वाब की खुमारी सा...
...तभी,
कोई नग्मा
रात की अंगड़ाई का
सूखे दरख्तों में कलियाँ पिरो देता...
और मैं हैरान सा
खोया-खोया
खोजता-खोजता
खुद ही खो जाता हूँ...
Sunday, August 22, 2010
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