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नहीं मुड़ कर कभी मैंने, चली उस राह को देखा,
है फिर भी क्यों खिंचा आया, मेरे संग ये कोई साया,
ये कैसी आस है, जिस पर कि मेरा ह्रदय भरमाया,
ये कैसा गीत है जिसको कि मेरी सांस सुनती है,
ये कैसा स्वप्न है जिसको कि मेरी आस बुनती है,
किसी के होठ में पाने, किसी अरमान के साए,
छुपाये प्यास को दिल में, कदम बढ़ते चले आये,
कि खोया था कहाँ क्या, आज तक हम जान ना पाए,
बसाए जिस्म का खंडहर, उखड्ती सांस की लय पर,
ये राही बढ़ रहा है - अब कहाँ जाये, किधर जाए...
जिधर भ्रम हो गया, मिल जाएगा अपना अधूरापन
...उधर ही बढ़ चले पग,
बाँध कर, दिल में सुहानी आस को,
कितने जनम की प्यास को,
कि मंजिल मिल सके शायद,
मेरी भटकी हुई तालाश को...
- Dec 14, 1972 (Lucknow)
1 comment:
wonderful sir, thanks for sharing. could connect with this piece :)
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