Wednesday, February 27, 2013

कौन गाता? कौन गाता?....

It is an exhilerating (and unsettling) feeling when you suddenly got connected to (to use a cliche) a long lost friend, philosopher and guide... when you rediscover a long lost poem by one of your "resident poets" of the time you were growing up, as a teenager.

Today I found/rediscovered this poem by Keshav Prasad Pathak:
 
सहज स्वर-संगम, ह्रदय के बोल मानो घुल रहे हैं
शब्द, जिनके अर्थ पहली बार जैसे खुल रहे हैं .
दूर रहकर पास का यह जोड़ता है कौन नाता
कौन गाता ? कौन गाता ?

दूर, हाँ,उस पार तम के गा रहा है गीत कोई ,
चेतना,सोई जगाना चाहता है मीत कोई ,
उतर कर अवरोह में विद्रोह सा उर में मचाता !
कौन गाता ? कौन गाता ?

है वही चिर सत्य जिसकी छांह सपनों में समाए
गीत की परिणिति वही,आरोह पर अवरोह आए
राम स्वयं घट घट इसी से ,मैं तुझे युग-युग चलाता ,
कौन गाता ? कौन गाता ?

जानता हूँ तू बढा था ,ज्वार का उदगार छूने
रह गया जीवन कहीं रीता,निमिष कुछ रहे सूने.
भर क्यों पद-चाप की पद्ध्वनि उन्हें मुखरित बनाता
कौन गाता ? कौन गाता ?

हे चिरंतन,ठहर कुछ क्षण,शिथिल कर ये मर्म-बंधन ,
देख लूँ भर-भर नयन,जन,वन,सुमन,उडु मन किरन,घन,
जानता अभिसार का चिर मिलन-पथ,मुझको बुलाता .
कौन गाता ? कौन गाता ?
- Keshav Prasad Pathak

Friday, February 22, 2013

लम्हे...

वो छोटे से लम्हे, वो मासूम लम्हे
थकी ज़िन्दगी में, सुहाने से लम्हे
गुज़रते हुए कारवां के वे लम्हे
हंसाते-रुलाते मचलते वो लम्हे

वो आधी कही इक कहानी के लम्हे
पिघलती हुई जिंदगानी के लम्हे
मिलन के वो लम्हे, बिछड़ने के लम्हे
भुलाने के लम्हे, निभाने के लम्हे
कोई आस ले कर लुभाने के लम्हे

कभी खो गए, मिल गए थे जो लम्हे
जाने कहाँ खो गए थे वो लम्हे
पकड़ से फिसलते गए वो लम्हे
हथेली में ले कर चले चंद लम्हे
फिसलते रहे उँगलियों से वो लम्हे...

वो सपनों के लम्हे, वो आंसू के लम्हे
वो हंसती-हुई भीगी पलकों के लम्हे
जाने कहाँ खो गए वो लम्हे
वो लम्हे याद आते हैं...

Thursday, February 21, 2013

कुछ सूनापन सा लगता है...

पतझर आया, पत्ते टूटे
टहनी से कुछ तिनके छूटे
थपकाती मस्त हवाओं में
उगते सपनों की छाओं में
किलकारी भरते ये तिनके
आंधी से अनभिग ये तिनके
शायद ये इक दिन बीज बनें
अंकुर इनमें भी फूटेगा
इक नयी फ़सल की नीव बनें...
 
पर आज मुंडेरी पर बैठा
जाते इनको मैं देख रहा
पल से ओझल हो जाते हैं...

कुछ सूनापन सा लगता है...

Saturday, February 16, 2013

लेकिन शायद... यादें घर नहीं बदलतीं

कुछ पड़ाव छूट गए, छोड़ दिए..
जीवन ने एक पगडंडी दी, बढ़ते आये

अब लगता है कुछ भूल गए
एक खालीपन जो चुभता है
चप्पा- चप्पा ढूढ़ते रहतें हैं
कुछ पुराने ख्वाब, कुछ खोये हुए रिश्ते

लेकिन शायद...
यादें घर नहीं बदलतीं

Wednesday, February 06, 2013

जीवन यूं ही चलता रहता... ढलता रहता!

सूरज वैसे ही उगता है
धड़कन वैसी ही चलती है
मौसम बदला, पत्ते टूटे
फिर नयी कोपलें खिलती हैं
जीवन यूं ही चलता रहता... ढलता रहता!

अपनी खिड़की पर बैठा मैं
ऊँगली में थामे सिगरेट को
तकता रहता हूँ वही सड़क
जिस से इतिहास गुज़र जाता
जीवन यूं ही चलता रहता... ढलता रहता!

कुछ बदल गया पर वही रहा
साँसे वैसी ही चलती हैं
हर दिन एक सूरज ढलता है
हर दिन एक सूरज उगता है
जीवन यूं ही चलता रहता... ढलता रहता!

लेकिन इस बहते जीवन की
धड़कन की यति में कभी-कभी
सूरज के ढलने-उगने में
इक सन्नाटा, इक खोमोशी
इक अन्धकार, खोयी यादें!!
लेकिन फिर भी...
जीवन यूं ही चलता रहता... ढलता रहता!

Friday, February 01, 2013

और काल-चक्र बढ़ता जाता...

छोटी-छोटी कुछ बातें थीं
महकी-सहमी कुछ यादें थीं
कुछ पल आये, और चले गए
उनसे करनी कुछ बातें थीं
और काल-चक्र बढ़ता जाता...

जीवन की डगमग गाड़ी में
पतझड़ के पत्तों सी जैसी
कुछ आशाएं जो शून्य हुयीं
कुछ इच्छाएं भी भूल गयीं
और काल-चक्र बढ़ता जाता..

लेकिन जीवन के आँचल में
इस उड़ते-बहके बादल में
शायद उन सपनों को इक दिन
मैं बाँध सकूंगा तथ्यों में
और काल-चक्र बढ़ता जाता..