Wednesday, October 23, 2013

आदि-अंत सब भूल चूका हूँ, ये कैसी उर-गति पहचानी ?...

आज अधूरी वही कहानी
यदि अनन्त यति मिटा सके तो
हर युग नें दोहराया जिसको
बात सुना दे वही पुरानी....

स्वर यदि जब बैरी बन जाए
मौन नयन ही कह उठते हैं
उर को जो है कथा सुनानी...

उर रोता तो नयन भीगते
बन जाती अभिव्यक्ति स्वयं ही
लिख देता आँखों का पानी...

नहीं कहीं दीपक की झिलमिल
भटक-भटक कर बना रहा हूँ
खोयी, अदिश, राह अनजानी...

ये पुकार किसकी आती है
आदि-अंत सब भूल चूका हूँ
ये कैसी उर-गति पहचानी ?...

- Dec 8th, 1973 (Lucknow)
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