Tuesday, January 04, 2022

नहीं, ये रात अँधेरी तो नहीं है इतनी...

इसमें सूरज भी पिघल जाता है पानी कि तरह
चाँद भी ढल के दुबक जाता है धीरे धीर
दूर हो जाते हैं, खो देते हैं कुछ अपनों को
मगर, ये रात अँधेरी तो नहीं है इतनी...

इसकी कालिख में छुपे रहते हैं अब भी तारे
काली चादर के उधड़ते हुए किनारों में
टिमकते रहते हैं; रोशनी कम है मगर बाकी है
अभी, ये रात अँधेरी तो नहीं है इतनी...

जुगनुओं की चमक अभी भी बाकी है
भोर होगी, सुबह अभी भी बाकी है...

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