Looking back though a haze of memories, this song/lyrics by Jaan-Nisar-Akhtar gave meaning to many of us... as we (my co-travellers - Sumu, Lootu, Santee, Nuppa, etc.) were coming to terms with our newly-discovered sensuality/ libido in our early/mid-teens then...
...and these lyrics took those impulses/fantasies to another orbit... (Sigmund Freud be damned for calling it "sublimation" :0)
[I still recall the lyrics and the song, in my mind... but would still like to listen to it once again... Manna Dey...
प्यास थी फिर भी, तकाज़ा ना किया,
जाने क्या सोच के ऐसा ना किया...
बढ़ के हाथों में उठा लेना था,
तुझको सीने से लगा लेना था,
तेरे होठों से, तेरे गालों से,
मुझको हर रंग चुरा लेना था...
....जाने क्या सोच के ऐसा ना किया...
हाथ आँचल से जो टकरा जाता,
एक रंगीन नशा छा जाता,
तेरे सीने पे खुली जुल्फों को,
चूम लेता तो करार आ जाता...
....जाने क्या सोच के ऐसा ना किया...
दिन हसीं रात में ढल सकता था,
मेरा अरमान निकल सकता था,
तेरा मर्मर से तराशा ये बदन,
मेरे हाथों में पिघल सकता था...
....जाने क्या सोच के ऐसा ना किया...
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment