I had scribbled these verses, during a long 24-hrs train journey - Bhopal-Bina-Katni-Bilaspur-Champa - to reach the coal-mines of Korba. I was 27yrs then, and just 2yrs into my first job. And was dealing with multiple changes happening with my Life - both outside and inside... as it was unfolding then (thankfully, life has kept unfolding such surprises even now :)...
प्राण, यदि तुम साथ दो तो,
आज जीवन के बिखरते रूप को साकार कर दूं...
ह्रदय की गति में निहित यति, पूछती है अर्थ अपना,
सांस के बोझिल, थके पग, ढूंढते गंतव्य अपना,
एक विस्मृत स्वप्न जग कर, मांगता सन्दर्भ अपना,
...प्रश्नचिन्हों को मिटा कर, स्वयं को आकर दे दूं....
आज युग की साध को आराध्य जीवन का बना लूं,
जो कभी सोयी हुई थी चेतना, उसको जगा लूं,
बाँध लूं नभ को, धरा को आज बाहों में छिपा लूं,
...प्रेरणा को आज जीवन का नया आधार कर दूं...
अनगिनित पथ हैं पथिक के, भ्रम दिशाओं में छिपा है,
लख्श्य से अनजान हूँ पर, ह्रदय में सपना लिखा हैं,
खोजने-मिलने-बिछुड़ने की अजब जीवन-प्रथा है,
इस प्रथा से, इस व्यथा से, आज फिर अभिसार कर लूं....
प्राण, यदि तुम साथ दो तो,
आज जीवन के बिखरते रूप को साकार कर दूं...
...such scribblings/verses were a great way to remain 'centred to self' (a term I discovered much later) at that time - and learn to deal with the dilemmas of an unfolding life
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