टूटी हुई लकीरें ले कर हाथों में,
कितने ही मासूम बहारों के सपने
बिखर चुके हैं मरू की जलती रेती में
दूर हुए हैं वही, कभी जो थे अपने...
पर इससे क्या! - हम सपने नए बनायेंगे
कुछ सपने जो जीवन की जलती रेती में
अंकुर फोड़ेंगे हंसती हुई बहारों के
भीगी आशाएं लिए झुलसते सीने में...
...पर अंधे सी लाठी जैसे मेरे सपने
कब तक सह लेंगे बोझ थके इन हाथों का
कब तक बेराह भटकने को दे अर्थ नए
आशाएं देगा दीप अँधेरी रातों का...
अंधियारे में ही उल्हझ, बुझा दूंगा दीपक
सपने बिखरा कर स्वयं बनूँगा इक सपना
जो स्वयं खोजता था साथी अंधियारे में
बन कर रह जाएगा साथी केवल अपना...
- May 11, '73
Friday, December 10, 2010
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