Tuesday, February 09, 2010

...and next day, I walked to the post-office and sent a telegram..

this is a part of the continuing Operations "Life-Upload" :)

almost 30 years back, on a lonely rainy afternoon in Bhopal - in a dingy flat in Arera Colony- , I had scribbled these verses... they also marked a crossing of threshold for me.....

आज फिर,
एक उन्मत्त स्त्री
सरीखी वर्षा...
और एक सिहरन
जो मुझे
इस घुटी हुयी सीलन भरे कमरे में,
झझकोर देती है॥
..और पास आ कर बैठ जाती है, पूछती है,
"तू अकेला क्यूं?"

...और मुझे याद आता है:
कई साल पहले
मैंने इन्ही पन्नों पर लिखा था:
"क्यों की मेरा जन्म
अकेले हुआ था,
मरने पर
साँसे मेरी रुकेंगी,
मेरी
अकेले!"

और याद आता है
मेरी आठ साल की उम्र के परिवेश
से
उठता हुआ यह गीत:
"जोदि तोमार डाक शोने ना कोई
एकला चलो रे॥"

और उस सिहरन
का वो प्रश्न
मेरी यादों के साथ
उलझ कर
एक गाँठ बन जाता है...

शायद ये अकेलापन
ये अकेले रहने की आदत,
ये अकेले रहने के विवशता
स्वयं एक गाँठ है,
जो मैंने
अपने अस्तित्व की खोज में
अपने पर डाल ली है...
और अब...
ज़िन्दगी के साथ किया ये समझौता
जीवन की सार्थकता से दूर,
एक बेमाने की विवशता बन गया है....

शायद,
सार्थकता और विवशता में
केवल समय की दूरी है...
शब्दों में बुनी अपने अस्तित्व की प्रतिछवियां:
- किनारे बैठ कर, लहरें गिननें वाला.. कवि
- कभी ना रुकने वाला... अकेतन
- जीवन की परिधि पर बैठा... कहानीकार...

... और इनकी तह में छिपा
एक मासूम खोजता एकाकीपन।

ये सब,
स्वयं को आंकने के,
स्वयं को मापने के,
स्वयं को पाने के...
...प्रयत्न थे
...जीवन के उन पलों में सार्थक थे....

लेकिन आज, जब
- कवि तैरना चाहता है,
- कहानीकार, जीवन की परिधि से उतर कर... जीना चाहता है
- और वह भटकता पथिक - अकेतन - थक चूका है....
और किसी झोपड़ी के दीपक को
अपनाना चाहता है...

तब यह सार्थकतायें,
यह प्र्तिछावियाँ
एक जंजीर बन जाती हैं...

...शायद,
ज़िन्दगी के साथ किया ये समझौता
मिटाया जा सकता है,
शायद,
कोई और समझौता किया जा सकता है,

...क्योंकि, यह अकेलापन
अब सागर का शांत किनारा नहीं,
साबेरिया का निर्मम परिवेश है,॥

जिसे छू कर,
मेरे अन्दर एक सिहरन उठती है,
..और पूछती है:
"तू अकेला क्यूं?!"

..and next day I walked to the post-office and sent a telegram: "Leave it all, come, let's live together..."

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