Monday, September 20, 2010
पर क्या खोया?... पर क्या पाया?...
Those were the pangs of growing up back then... and trying to (not) commit my "terms of engagemnts" with the world around me, as I was growing up then....
...these verses were jotted down on Jan 27th, '74 (I was around 19yrs old then) by a person (the other "me"), who I hope to meet one day - once again...
...insha-allah
जब-जब राह मिली तब-तब,
अपने पर बंधन सा पाया
जब-जब भटका मैं तब-तब
कुछ खालीपन सा घिर आया!..
प्रेम मिला, स्वीकार सका ना,
दायित्वों से भाग उठा,
प्रेम-रिक्त जीवन से लेकिन
पल ही भर में उकताया!...
किसको खोजूं? क्यूँकर खोजूं?
जीवन के आधार कहाँ हैं?
प्रश्न बुने, कुछ पल फिर मन को -
बहलाया... या, भटकाया?...
सत्य बना हर पल की सीमा,
हर पग मंजिल का परिचायक
सांस बनी जीवन का दर्शन,
पर क्या खोया? पर क्या पाया?...
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2 comments:
Simple one with deep meaning :)
किसको खोजूं? क्यूँकर खोजूं?
जीवन के आधार कहाँ हैं?
Sorry - but do you feel the same way today also ?
Nice poem...
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