Those were the days - many, many years back (somewhere in late '70s) - when one was madly in love with life as it was unfolding, with someone in one's life (and who later departed to occupy some other universe)... and with life in general
...when I had scribbled these verses
...even though perhaps the "जीवन भर के नाते हैं सब...." doesnt hold in some ways/ anymore now (having said farewell) - and life moved on in its course...
बोलो प्रेयसि! किस पथ जाएँ
सारे ही पथ भाते हैं अब...
लहरों पर हंसती प्रतिछवियां
सागर में खोती सरिताएं
आज सभी से शब्द चुरा कर
अधरों पर अमृत बिखराए
गीत चिरंतन गाते हैं हम....
कविता बन जाती स्मृतियाँ
चाहे कितनी भी सूखी हों
बीती ऋतु की मधुर कहानी
पुस्तक-पृष्ठों पर मुरझाये
सूखे फूल सुनाते हैं अब....
जीवन की भटकी पगडण्डी
उल्हझ गयी तेरे केशों में
हम चंचल, मोहित दो राही
पलकों पर कुछ स्वप्न सजाये
जीवन-दिशा बनाते हैं अब....
तुमने जो माँगा है, प्रेयसि!
वो तो है अधिकार तुम्हारा
बाहों में आ कर रो लें या,
थक कर आँचल में सो जाएँ,
जीवन भर के नाते हैं सब....
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1 comment:
awesome :-)
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