I keep (re-)discovering this 16yr-kid, who used to write verses in my personal diary then...
...one day hopefully, I will meet him in my own "Zima Junction" - and will be able to look into his eyes without the feeling of having betrayed him....
आगे अनंत तक उसका पथ था बिछा हुआ,
उस पथ पर बढ़ता जाता था राही प्रतिपल,
वह राही था जिसकी मंजिल थी कहीं नहीं,
वह बिना ध्येय के उड़ता आवारा बादल |
उस राहगीर की राहें थी उसका साथी,
उन राहों के संग अब तक चलता आया था,
बस यूँ ही बढता जाता था वो बिना लक्ष्य,
अब तक न किसी मंजिल ने उसको पाया था |
उसको थी चाह नहीं मंजिल के मिलने की,
उसने तो प्रेम किया था अपनी राहों को,
कितनी ही मंज़िल पा कर के ठुकराईं थीं,
कितनी ही बार छुड़ाया लिपटी बाँहों को|
उसने तो प्रेम किया था अपनी राहों से,
ये राहों जो मंज़िल पर जा कर मिट जातीं,
था जिनसे प्रेम किया, क्या उन्हें मिटा सकता,
राहों से बिछड़ गया होता 'गर मंज़िल आती|
- April 30, '71 (Lucknow)
Sunday, February 27, 2011
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2 comments:
Lovely, this 16-year-old lad! Don't know if the older 'lad' is different...
Very good read!
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