Thursday, February 17, 2011

आज फिर अहसास होता... बहकते, खोते हुए, भटके समय का...

आज फिर अहसास होता
बहकते, खोते हुए, भटके समय का...

...जो निरंतर, बह रहा, अंजान बन कर
खोजता है सार जो, हर श्वास की
अविराम लय का...

झील पर कोहरे सरीखा
सिमटता अहसास अपने में छुपाये,
आंसुयों की लेखनी से, उमड़ता,
इतिहास स्वप्नों की प्रलय का...

...और
यह अनुभूति जो उपहास बन,
अभिशाप बन कर,
चेतना की नीव को झिंझोध्हती है...

...एक सिहरन बन धरा पर ला पटकती...
अजनबी परिवेश में,
मेरे मुखौटों को हटाती
जो चुरा लेती
संजोये क्षणों से मासूमियत को,
बनाती कृतिम मुझको...

... और
सांस लेता व्यंग
मैं
बनता स्वयं का...

- 28/04/83 - Nainital
(I was 27-28yrs old then... still struggling to find a congruence between the personal and the public, the being and the becoming, the outer and the inner, life lived and life unfolding...
...not that much has changed since then...)

1 comment:

Sanjay Jha said...

बहुत गहराइयाँ हैं इन पंक्तियों में... इतिहास स्वप्नों के प्रलय का...अनुभूतिओं का उपहास..चेतना की नींव को झिंझोड़ीती... और सांस लेता व्यंग मैं बनता स्वंय का....मानो थमा हुआ एक सैलाब से हैं..वास्तविकता यह है की विसंगतियों के बीच विकल्पों को बनाने, तलाशने या अपनाने का नाम जीवन है. कुछ विकल्पों की पगडण्डी थामे हम सघन अंधकार से भरे जंगल में कभी खो जाते हैं तो कभी किसी पर्वत के चोटी पर बैठे सूरज की रोशनी में नहाये
स्वर्णिम यात्रा में क्षणिक विश्राम लेते ...परन्तु कुछ भी स्थिर नहीं रहता...और कभी विकल्पों में से कोई एक ऐसा भी होता है जिस से किसी नदी के लहरों में डूबते- तैरते किसी कोने से कहीं और किसी और तट पर...बस कुछ लोग अपने क्षणिक अनुभवों को अपने अन्दर सिमेट कर - मानो अपने साँसों को अपने अन्दर थामे रखने की हठ सा- परन्तु विवश नादान को उसे छोड़ अग्रसरित होना ही पड़ता है...जीवन एक यात्रा है और वह भी अनवरत....और एक दिन थक कर या विश्राम करता बस एक और नए गंतव्य की ओर पुनश्च चरैवती चरैवती ....