Tuesday, December 27, 2011

from sublime to absurd...

When we - the trio (now just duo) - were growing up as teenagers in early '70s, we were grappling with finding/ extending the bandwith of life in our existence... an existential freedom to be able to live across the sublime-to-absurd

One of us (not me) had set the agenda for us...

मुझमें है मष्तिष्क, हृदय है,
मझमें काम, क्रोध, और भय है,
जो अपना है उसे दबा कर,
रूप देवता का कर लूं मैं,
क्या जीवन का ध्येय यही है?...

he had also written these verses:

उस शाम, हल्के-हल्के कोहरे में तैरते हुए
तुम और मैं, न मालूम किन ऊंचाइयों को
छू लेने के लिए, पहाड़ के संकरे रास्तों पर
बढ़ते जा रहे थे...

और मैंने एकाएक ठहर कर, जोर से चीख कर
हर एक छोटी को, हर एक घटी को
तुमारा नाम दोहराने पर मजबूर कर दिया...

मेरे बचकाने-पन पर, तुम हंस पड़ी थीं...

और नाक का एक टुकड़ा, तुम्हारे होठों के ऊपर
आ चिपका था....

तुम बेखबर हंसतीं जा रहीं थी
और मेरी आँखों में तुमारा हँसता चेहरा
धुंधला होता जा रहा था...

... और जब नाक की एक लिज्लिली पर्त ने
तुम्हारे सारे चहरे को धक् लिया
तो मैंने रुक कर
नीचे दूर तक गयी उन घाटियों में
(जो शायद अब भी तुम्हरा नाम दोहरा रहीं थीं)
उलटी कर दी!!

hehe!... I did warn you :0)
... we were searching to find "our existential freedom to be able to live across the sublime-to-absurd"!

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