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ज़िन्दगी शाम सी ढल जाती है,
ढूंढता आफ़ताब भटकी हुई उस धूप को जो,
कायनातों की सियाही में पिघल जाती है....
फिर किनारे ने उस समुन्दर से,
झिझकते हुए से पूछ लिया,
"और कब तक चुराओगे मेरी जिस्म की रेत
जो तुम्हारी सतहों में बिखर जाती है"...
टूटती शाख से पत्तों ने कहा,
"आंधियां आती रहीं, आएँगी,
हम मरेंगे, मगर मिल जायेंगे मिट्टी में जहाँ,
इक लहर आती रही, और एक लहर जाती है"...
3 comments:
Bahut khoob likha hai sir!! very thoughtful and apt:)
मधुकर सर,
आपके पंक्तियों से प्रभावित हो मैंने भी कुछ लिख डाला, शायद आपको पसंद आये...
सिलसिला जब यादों का निकल पड़े,
अकेली जिंदगी भीड़ में भी तनहा सा लगे,
ढूंढने जो निकला था सुबह कि नर्म धूप,
सिसकती किसी पेड़ के शाखों में अटक कर रह गया..
फिर किनारे ने उस समंदर की लहरों से पूछा,
छू कर चले जाते हो यादों की तरह और सब मिटा जाते हो,
जब जब करने की है कोशिश उसे भूलने की,
उतनी बार तुम आकर मुझे फिर से झकझोर जाते हो...
पीली यादों सी पत्ते शाखों का दामन छोड़ चले,
बस अब यूँ ही अकेला तनहा सर्दियों का सामना करो,
बहारें आती है और चली जाती हैं जिंदगी के गुलिस्तान में,
यादें और तन्हाई के दरम्यान जिंदगी यूँ ही तमाम हो जाती है...
wah.. amazing, Sanjay!!
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