Monday, January 31, 2011

चलो, आज माटी में सपने सजाएँ...

Last 4 days during the 3rd National Conference on Social Entrepreneurship were a heady ride. Once again, met some amazing people - architects of the other India; young enthusiasts bubbling with energy and ideas; souls who had drifted away, but coming back into the fold; seekers of new destinations, and makers of another caravan...

Thus, these reflections...

चलो, आज माटी में सपने सजाएँ,
धरा चूम लें, आस्मां को सवारें,
जो अपनी ज़मीन है, जो अपना ज़हन है,
उसे ढूंढ कर खुद-से-खुद को मिलाएं...




ये माटी वतन की, ये माटी ज़हन की,
कभी कोख़ थी जो पनपते सपन की,
जहाँ एक झिझका हुआ कोई सूरज
उगा था, पर अब ढूंढता है दिशाएं,
चलो, आज माटी में सपने सजाएँ...

कहाँ को चले थे? कहाँ जा रहे हैं?
किसे खो दिया था? किसे पा रहे हैं?
यही थी क्या मंजिल? हम्ही थे मुसाफिर?
चलो इन सवालों को फिर से उठायें,
चलो, आज माटी में सपने सजाएँ...

ज़हन से भी आगे जहां और भी हैं,
जहाँ है ग़रीबी में खोयी-सी रूहें,
उन्हें अपनी कुटिया में दे कर बसेरा,
चलो आज फिर एक दुनियां बसायें,
चलो, आज माटी में सपने सजाएँ...

ग़रीबी, वो भटकी हुई रूह हम हैं,
ज़हन औ' जहां की भी दीवार हम हैं,
कि जिसने कभी हम-को-हम से भुलाया,
बचे चंद लम्हों में उसको मिटायें,
चलो, आज माटी में सपने सजाएँ...

भंवर से उछल, चंद लहरों की बूंदे,
उभरते हुए कारवां की लकीरें,
अकेले थे पर राह मिलती-सी लगती,
अँधेरे उफ़क में दिए कुछ जलाएं,
चलो, आज माटी में सपने सजाएँ...

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