Saturday, January 01, 2011

Imagined Lifescapes (1)

When I was growing up - late teens/early '20s - I wanted to become a writer - an author, novelist, poet... (that, of course, did not happen... as happens with so many life's grand plans :)...

But I still retains (or just re-discovered) some of those scribblings, which I used to make to capture the ruminations of the protogonist in imagined lifescapes... here are some of them...
(maybe I will be able to key-in some more :)

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ज़िन्दगी, जैसे ढलान पर उन का एक गोला लुढ़कता जा रहा है, खुलता जा रहा है...
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कभी भी आदमी को उसके घर की दीवारों के अन्दर देखो - वह किसी-ना-किसी रूप में ज़रूर उन दीवारों की अपेक्षाओं में बंधा होगा|... दीवारों की अपनी ही नैतिकता होती है|
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पेड़ों के बीच बहती हुई की सरसराहट जैसी याद...
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कुछ शब्द हैं, जो मैंने आज तक नहीं कहे| पुराने सिक्कों की तरह वे मेरी जेब में पड़े रहते हैं| ना उन्हें फ़ेंक पाता हूँ, ना भुला पाता हूँ|...
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हम दोनों के बीच हमारी निगाहों के अलावा और कोई नहीं था|
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एक निरर्थक सी सार्थकता...
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मुझे ये सोच कर अच्छा लगता है कि हम दोनों एक ही शहर में रहते हैं, एक ही शहर के पत्ते अलग-अलग घरों की सीढ़ियों पर बिखर जाते हैं,... और जब हवा चलती है, तो उसका शोर उसके और मेरे दरवाजों को एक संग खटखटाता है...
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हम दोनों यूँ ही जाने कब से बात करते जा रहे थे| बिना मतलब एक वाक्य से दुसरे वाक्य तक सफ़र करते हुए| ये केवल समय बिताना था - हालांकि जिस बात को कहना था. उसे हम लगातार स्थगित किये जा रहे थे...
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खँडहर... सब बीता हुआ, जिया जा चूका, फिर भी जहाँ का तहां!
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एक याद... जैसे कभी-कभी किताब पढ़ते-पढ़ते हम उलट कर पिछले पन्नों पर एक सरसरी सी निगाह डाल देतें हैं....
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जब कभी हम दोनों अकेले होते हैं.... जब कभी हम एक-दुसरे के संग होते हुए भी अकेले हो जाते हैं....
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हमारी बात फिर वहीँ आ कर अटक गयी थी - बैगाटेल की गोली की तरह, जो चारों ओर घूम-फिर कर एक ही छेद में आ फंसती है...
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दिन के समय इनसे अधिक रौशनी नहीं आती,... जो रौशनी आती है, वह सिर्फ इतनी कि आस-पास का अँधेरा देख लें..
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etc. etc...

1 comment:

sanjayjha said...

बहुत खूब... मुझे ये दोनों बहुत पसंद आये-

"कुछ शब्द हैं, जो मैंने आज तक नहीं कहे| पुराने सिक्कों की तरह वे मेरी जेब में पड़े रहते हैं| ना उन्हें फ़ेंक पाता हूँ, ना भुला पाता हूँ|..."
"खँडहर... सब बीता हुआ, जिया जा चूका, फिर भी जहाँ का तहां!"

जिंदगी के उस हिस्सों कि बातें...जब हरियाली एक सपना नहीं बस एक आम सी बात थी...बीते दिन अब भी यादों में उन दिनों के भीनी भीनी खुशबू लिए ..खुश्बू जो अब भी उतनी ही ताज़ी लगती है...छूने की जब भी कोशिश की हमनें उन्हें, सब धीरे धीरे अस्पष्ट होती आकृतियों सी..लाजवंती की तरह सिकुडती और सकुचाती..दूर और दूर...सब कुछ धुंधली सी जैसे शीशे के उस पार दीखता है पर छू नहीं पाता...बस जब कभी अल्बम पलटता हूँ, पीले पड़े वो बेजान सी तसवीरें जिनकी यादें उतनी ही ताज़ी जितनी वो पीली और पुरानी हो चुकी हैं, अंतर्मन में बिलकुल सजीव होती और मैं निस्तब्ध फिर कहीं एक और सफ़र पर अकेला और खोया खोया सा निकल पड़ता हूँ ..सफ़र जिसे जिंदगी कहते हैं...!