Thursday, January 20, 2011

वो पग़डंडियाँ, जिनसे भटक कर...

वो पग़डंडियाँ, जिनसे भटक कर
आ गए थे रास्तों के फेर में:
...जहाँ थे सुनसान नग्मे;
कुछ शिथिल जीते हुए शव,
बात करते कुछ मुसाफिर
ढूंढते अस्तित्व अपना..
...हाँ!
मिला था उनसे मुझे भी,
अधूरा अपनत्व अपना...
क्यों कि शायद,
छोड़ आया था कहीं मैं
एक वो मासूम सपना..

...जिसे ले कर हम बढे थे
पर कहीं वो खो गया था
एक पत्थर के शहर में...
दब गया था इक भ्रमर में...
शहर के सुनसान-पन में..

***

...आज फिर उन पग़डंडियों को -
जो निरर्थक सी भटकती,
क्षितिज पर सपना सजातीं -
ढूंढ कर मैंने कहा,
"मैं चल रहा हूँ,
खोजता हूँ मार्ग अपना, अंत अपना
आ गया फिर पास तेरे,
जहाँ से हम सब चले थे,
ढूंढते गंतव्य अपना...

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