Bal Swarup "Rahi" used to be my "resident poet" - someone with whom I could resonate, and who would articulate what I could not then (that's back in the early '70s)... ...some of his verses I (re-)discovered today:
कौफी के प्याले में, कब तलक डुबोओगे,
अन्तरंग कडुआपन,
मुझसे यूं पुछा है उकताई शाम नें,
और मैं निरुत्तर हूँ...
***
धुंए और धुंध भरे इस युग में,
आओ, हम अर्थ की तलाश करें,
चाहे वह व्यर्थ हो...
***
शब्द जो तिरिस्कृत हैं,
अर्थ जो बहिष्कृत हैं,
लाओ, हम उन्हें नए गीतों में ढाल दें...
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1 comment:
beautiful..
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